ये भी तुम्हें धोका है कि मैं कुछ नहीं कहता – मेला राम वफ़ा ( पुण्यतिथि पर विशेष )

आज मेला राम वफ़ा की पुण्यतिथि है. शायर, समाजसेवी और क्रांतिकारी, वफ़ा क्या कुछ नहीं थे. उनकी शायरी का आलम यह था कि उन्हें एक बाग़ी नज़्म ‘ऐ फिरंगी’ लिखने के लिए अंग्रेजी सरकार ने 2 साल क़ैद-ए-सख़्त की सज़ा सुनाई.

मेला राम वफ़ा का जन्म सयुंक्त पंजाब के जिले सियालकोट से 22 किलोमीटर दूर गाँव दीपोके में 26 जनवरी 1895 को पंडित भगत राम के घर हुआ था. मेला राम ने अपना पहला शेर तब कहा जब वह 17 साल के थे.

साल 1920 में लाला लाजपत राय ने उर्दू का दैनिक अख़बार “वंदे मातरम” निकाला जिसके सम्पादकीय मंडल में मेला राम वफ़ा को स्थान मिला. लाला जी के जेल जाने के बाद वफ़ा को इसका प्रधान सम्पादक बनाया गया लेकिन फिर लाला जी से वैचारिक मतभेद होने की वजह से उन्होंने यह पत्र छोड़ दिया. फिर सन 1925 में मदन मोहन मालवीय ने दैनिक अख़बार “भीष्म” की शुरुआत की तथा वफ़ा इस में संपादक नियुक्त हुए. वफ़ा साहिब की दो पुस्तकें प्रकाशित हुई  सोज़े-वतन(1941), संगे-मील (1959).

वफा साहब का देहांत 19 सितंबर, 1980 में हुआ था. वफ़ा की शान में लखनऊ में कई साल तक जश्न-ए-वफा नाम से मुशायरा भी होता रहा. पंजाब सरकार ने राज कवि का सम्मान देकर उनकी योग्यता को सराहा भी था और उन्हें “राजकवि” की उपाधि दी थी.

आज हम लाए हैं वफ़ा साहब के कुछ चुनिंदा शेर और ग़ज़लें

इक बार उस ने मुझ को देखा था मुस्कुरा कर

इतनी तो है हक़ीक़त बाक़ी कहानियाँ हैं

कहना ही मिरा क्या है कि मैं कुछ नहीं कहता

ये भी तुम्हें धोका है कि मैं कुछ नहीं कहता

ग़ज़ल १

तिरी क़ातिल अदा ने मार डाला
क़ज़ा बन कर हया ने मार डाला।

हमेशा ही रही है नामुआफ़िक़
ज़माने की हवा ने मार डाला।

ये क़बलअज़वक़्त वावेला कहां तक
ग़मेरोज़ेजज़ा ने मार डाला।

खजिल हूँ हुक्मे अर्ज़ेमुद्दआ पर
दिलबेमुद्दआ ने मार डाला।

बपा तूफ़ान है वहशत का दिल में
बबूलों की हवा ने मार डाला।

वफ़ाग़ुर्बत में रोये कौन हम को
कहां ला कर क़ज़ा ने मार डाला।

ग़ज़ल २

कहना ही मिरा क्या है कि मैं कुछ नहीं कहता
ये भी तुम्हें धोका है कि मैं कुछ नहीं कहता।

ये बात कि कहना है मुझे तुम से बहुत कुछ
इस बात से पैदा है कि मैं कुछ नहीं कहता।

कुछ कह के जो बन जाऊं बुरा सबकी नज़र में,
इससे यही अच्छा है कि मैं कुछ नहीं कहता।

अपनी ही कहे जाता है नासेहनाफ़हम
तू कुछ नहीं सुनता है कि मैं कुछ नहीं कहता।

रहता है वो बुत शिकवाअग़्यार पे ख़ामोश
कहता है तो कहता है कि मैं कुछ नहीं कहता।

कहलाओ कुछ ग़ैर की तारीफ़ में मुझ से
समझो तो ये थोड़ा है कि मैं कुछ नहीं कहता।

कहने का तो अपने हैवफ़ाआप भी क़ाइल
कहने को ये कहता है कि मैं कुछ नहीं कहता।