चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब
आज के हालात पर दुष्यंत कुमार की एक कविता
हालात-ए-जिस्म सूरत-ए-जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब
नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे
होंटों में आ रही है ज़बाँ और भी ख़राब
पाबंद हो रही है रिवायत से रौशनी
चिम्नी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब
मूरत सँवारने में बिगड़ती चली गई
पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब
रौशन हुए चराग़ तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब
